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देव, ऋषि और पितृऋण की तरह मातृभूमि का ऋण भी प्रत्येक मनुष्य पर अवश्य ही है और इस ऋण से मुक्ति का यथासाध्य प्रयास करना ही चाहिए, लेकिन हमारी मातृभूमि का क्षेत्र विस्तृत है। ऐसे में धरती के सबसे महत्वपूर्ण अंग और माता सरीखी नदियों की सेवा के साथ पानी के परंपरागत संसाधन की सेवा करने का संकल्प एक बडा कार्य हो सकता है।
बंधुओं, आधुनिकता के प्रभाव में हम अपनी परंपराओं को भूल गये, जिसके बाद विनाश का नज़ारा एक के बाद एक कर सामने है। दरअसल पानी, वन, पर्यावरण और जैव विविधता आदि प्रकृति के उपहार को समाज अच्छी तरह से जानता व समझता जरूर है, लेकिन वह कागजी ज्ञान तक सीमित रह गया है। क्योंकि इनके साथ हमारा व्यवहार बिलकूल विपरीत हो रहा है और उसका परिणाम भी भुगत रहे हैं। आज पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग से लेकर पानी की कमी तक का कारण अपनी परंपराओं को भूल जाना है।
हमारे पूर्वज भले ही कम पढ़े-लिखे इंसान थे, लेकिन इनके महत्व को समझते थे और इनकी पूजा करते थे। पूर्वजों ने जिसकी पूजा की, उस नदी, तालाब आदि को हम समाप्त कर चुके हैं। ऐसे में लोक चेतना ही पर्यावरणीय संकट से हमें बचा सकती है। क्योंकि यह केवल सरकार ही नहीं, बल्कि हमारी भी जवाबदेही है।

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